जब पाँव तेरे ,
अंगूठे से
गोल घेरे बनाते है ,
जमीन पर ,
तब लब तेरे ,
अनकहा सब ,
कह जाते है ,
मुझसे !
जानती हो ?
जब जान -बूझकर ,
मैं अनसुना ,
कर जाता हूँ ,
तेरी पुकार ,
तेरे लबों से ,
फिर से सुनना ,
चाहता हूँ ,अपना ,
नाम ,
बार -बार
जानती हो ?
जब बाल बिखर ,
जाते है तेरे ,
कांधो पर ,
और सोंचता हूँ,
यह बटन ,
क्यों इतनी ,
देर में टूटते हैं ,
तेरी जुल्फों में ,
जब उलझते है ,
ख़चक से ,
काट देती हो ,
अपने दांतों से ,
तुम धागे ,और
मेरे ,
विचारों का ,
सिलसिला !
जानती हो !
-अमृता श्री
