जब देखता हूँ तुमको ,
दो गहरी आंखे,
एक चेहरा ,
साधारण सा ,
कुछ चेहरे के दाग,
तुम्हें और
थोड़ा ,
साधारण बना देते हैं !
आसपास खूबसूरती ,
जो फैली हुई है ,
चौंधिया जातीं ,
हैं ,आंखे मेरी ,
मेरा दामन ही क्यों ,
ख़ाली ख़ाली सा है ?
मुझसे ही मेरा रब ,
क्यों रूठा-रूठा सा है ?
आज देखता हूँ ,
तुम्हे ध्यान से ,
नजरें अपनी गड़ाते हुए !
दिख जाती हो तुम ,
कभी मेरी परेशानियों में ,
मेरे बालों में उँगलियाँ अपनी ,
फंसाते हुए !
तुम दिखती हो मुझे ,
कभी अपने आंचल से ,
शिशु का चेहरा पोछते हुए ,
कभी पसीने से तरबतर
रसोई में ,सबको
भोजन परोसते हुए ,
आज शायद मुझे वो ,
ऑंखें मिली है ,
तुम्हारी खूबसूरती ,
इसमें तैरने लगी है !
तुम्हारे इस रूप ,
का असर मुझपर ,
होने लगा है ,
अब सब कुछ ,
साफ साफ मुझे ,
दिखने लगा है !
-अमृता श्री

Nicely penned
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Thanks 🙂
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