मैं एक बच्चे के गुल्लक सा ,
सिक्कों सी , है भावों की खनखनाहट मेरी ,
बाहर निकलने की है, एक छटपटाहट मेरी |
गुल्लक सा खनकता हूँ ,
दिल में कई ख्याल रखता हूँ ,
नजरों से ही तुझे कई बातें कहता हूँ !
जैसे कोई बच्चा गुल्लक को हिलाता है ,
कान के पास रखकर पैसे का अंदाज़ भी लगाता है ,
जोर देने पर भी वो एकाध सिक्का ही बस पाता है !
ऐसा ही महसूस होता है मुझे ,
मैं भी भावों का एक गुल्लक ही तो हूँ ,
कोशिश करता हूँ कि आज यह बोलूंगा ,ऐसे बोलूंगा ,
पर तुम्हें देखता ही रह जाता हूँ ,ख्यालों में बस खो सा जाता हूँ !
शायद यह गुल्लक तोड़ दूंगा एक दिन!
भावों को खुला छोड़ दूंगा उस दिन !
-अमृता श्री
Nice
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Thanks 🙂
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क्या बात। खूबसूरत कविता।👌👌
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Thanks 🙂
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