शाखें निकली नहीं अभी तक ,शज़र की बात करती हो?
शामें ढली नहीं अभी तक ,सहर की बात करती हो ?
इस राह से जाओ ,यह जानी पहचानी है ,
और तुम हो कि अनजान गलियों की बात करती हो ?
कहती हो कि लोग समझ जायेंगे तुम्हारी तकरीरों को ,
किस दौर में रहती हो तुम, किस ज़माने की बात करती हो ?
अंदाज़ेबयां तुम्हारा सबसे हटकर है “श्री ” क्योंकर ,
बुत बन गए इंसानों को क्यों जगाने की बात करती हो ?
Written by -अमृता श्री
