कभी कभी ना चाहते हुए अपनी तुलना रमा महंगे टी -सेट से कर बैठती थी | शायद ऐसे ही उसे इस कप की तरह पेश किया जाता था | फिर जैसे काम हो जाने पर इसे धोकर अपनी जगह दिखा दी जाती है वैसे ही उसे भी अपनी जगह बखूबी दिखा दी जाती थी | क्या वो नहीं जानती थी अपनी अहमियत ?
अपना हर मिनट उसने इस घर के नाम किया था पर बदले में इस घर ने उससे उसकी पहचान भी छीन ली थी अब वो बस बहु ,चाची ,जेठानी और देवरानी और पत्नी बनकर रह गयी थी |
वो रमा कहीं खो गयी थी जिसे बारिश में भीगना इतना पसंद था ! वो रमा कहीं नहीं थी जो बाथरूम में गाने लगाकर सुना करती | वो रमा का चेहरा कहीं नहीं था जो अपने कपड़े बिना प्रेस किये नहीं पहना करती! ज़िंदगी की जिम्मेदारियों में उलझ कब उसने अपनी पहचान खो दी ,उसे पता ही नहीं चला ! कब सबकी ज़रूरतें उससे ऊपर हो गयी उसे याद नहीं | हाँ पर उसके इन समझौतों ने घर को मज़बूती ज़रूर दी |
जहाँ घर की बड़ी बहु ने अपना बोरिया बिस्तर अलग किया वहीँ छोटे ने भी अपनी पोस्टिंग अलग शहर में करवा ली| हज़ारों मीन मेख़ों पर तौले जाने वाली रमा ही अपने बूढ़े सास ससुर का ख्याल रखने वाली बनी | सास की बीमारी और उसकी सेवा ने उन्हें अच्छे से समझा दिया था कि हीरा कौन है जिसे वो कोयला समझ कर अबतक कोस रही थी | दिन जैसे हाथो से फिसलते गए और उम्र भी !सास और ससुर अपने अंतिम वक़्त में उसके पास ही रहे | जाने से पहले आशीर्वाद ही देकर गए दोनों| बच्चों का साथ था तो आज वो भी अपनी नौकरी और जीवन के संघर्षो में व्यस्त है |
अब वो दोनों ही बचे हैं इस बड़े से घर में !बस सारी ज़िंदगी जैसे आँखों के सामने सपने की तरह गुज़र गयी | सोचते- सोचते नींद ने उसे घेर लिया |
अपनी किताब लेने जैसे रितेश कमरे में आये तो सोती हुई रमा पर अनायास नज़र पड़ी तो ठिठक कर रह गए वो ! कुछ देर देखते रहे और वही धीमे से एक कुर्सी खींचकर बैठ गए | कमज़ोर हो गयी हैं रमा ! उसके चेहरे और हाथों में पड़ी झुर्रियों में उनका जीवन दिख रहा है|
याद आया कैसे वो उसे पहली बार देखने गए थे ,शरमाई सकुचाई रमा ने फिर भी उन्हें मौका देखकर देख ही लिया था और उसे खुद को देखते उन्होंने | नज़रें आपस में टकराई तो जैसे मानों कितना कुछ कह गयी | अलमस्त सी रीमा शांत राकेश के मन में हलचल मचा गयी! दुल्हन बनकर आयी रीमा के चूड़ियों की खनक ने उन्हें दीवाना बना रखा था | उन्हें तो बस अपनी पत्नी का इंतज़ार होता कि कब वो उसे अकेले में मिले और वो उसकी घनी ज़ुल्फ़ों के नीचे अपना बसेरा बना ले | माँ की बातें ,भाभी के उलहाने से मुरझाई रीमा भी जैसे उसके पास आकर सब दर्द भूल जाती |
एक दो बार उसने इन बातों को रोकने की कोशिश भी की पर इशारों में रीमा ने उसे मना कर दिया था फिर उसने भी इसपर आगे ध्यान नहीं दिया |
सामने रीमा सो रही है | दोनों ज़िंदगी के तीसरे पड़ाव में है | अचानक से उसे खोने के डर से घिर गया मन ! गृहस्थी की गाड़ी में पीसती रीमा कहीं अपने संघर्षो के साथ अकेले रह गयी थी अब तक | उन दोनों ने ही जीवन जीया नहीं अबतक बस खींचा ही तो है कभी इसके मुताबिक कभी उसके मुताबिक ! जीवन के इस पड़ाव में लगता है दूसरों के लिए ज़िंदगी जीते जीते अपनी ज़िंदगी जीना भूल गए कही !सोती हुई रीमा के चेहरे की थकान में कही रुक गया है उनका जीवन !
ना क्या उनके इस जीवन का अंत है ? आंखे जैसे भर आयी राकेश की !
“नहीं ” दृढ़ता से उसने खुद को ही कहा “अब नहीं “| बिना रीमा की नींद तोड़े धीरे से उठा वो !
बाहर से दरवाज़ा लगाकर सामने वाले फूलों की दुकान में गया ,कितने नौजवानो को फूल खरीदते देखा है वहां से | पहले थोड़ी झिझक सी आयी पर इस बार वो किसी बात से रुकने वाला नहीं था |”सुनो ज़रा लाल गुलाब के फूलो का एक गुलदस्ता तो बनाना .. 100 गुलाबों वाला ” बड़ी सधी हुई आवाज़ में आज अपनी दिल की बात कह डाली |
मेरे विचार : कहीं आप भी तो जीवन के आपधापी में एक दूसरे को भूलते तो नहीं जा रहे ,अगर ऐसा है तो रुक जाये| अपनी ज़िंदगी को प्यार से मिले | याद रखें कि ज़िंदगी आपके लिए ठहरती नहीं अपनी दौड़ लगाती रहती है | आपको ही ठहर कर अपने लिए समय निकालना होगा|
–अमृता श्री
