परेशां हूँ ,
लत तेरी, जो लगी है ,
छूटती क्यों नहीं
मुझसे ?
हैरान हूँ ,
बातें जो तेरी हैं ,
भूलती क्यों नहीं
मुझसे ?
परेशां हूँ !
अकेले में जब ,
हवा का झोंका ,
छू मुझे जाता है ,
ख्यालों से निकलकर तू ,
फिर मेरे सामने आ जाता है !
यादें तेरी ,जो आती-जाती हैं , ऊबती क्यों नहीं मुझसे ?
लत तेरी, जो लगी है ,छूटती क्यों नहीं मुझसे ?
बातें जो तेरी हैं ,भूलती क्यों नहीं मुझसे ?
परेशां हूँ !
बांध कर कोने में उन्हें , खड़ा करके भी देखा है ,
बड़ी आंखे करके इनको डरा करके भी देखा है ,
ख़ामोशी इनकी मुझे सच मानो ज्यादा तड़पाती हैं ,
शायद चुपके से ये मेरा सूनापन भरने आती हैं!
इन यादों से लगता है, सांसे मेरी चलती है ,
मुझमे यह जिन्दा रहती है ,मुझमे ही यह मरती हैं !
लेन -देन की यह बही संभलती क्यों नहीं मुझसे ?
हैरान हूँ ……
लत तेरी, जो लगी है ,छूटती क्यों नहीं मुझसे ?
बातें जो तेरी हैं ,भूलती क्यों नहीं मुझसे ?
परेशां हूँ !
-अमृता श्री

Nice lines…
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इस कश्मकश में तो सारी दुनिया परेशान है, अमृता जी
और इस परेशानी से दो चार हुए बिना जिंदगी भी तो संभव नहीं
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