अग्नि सी जल रही
थी जिह्वा पर ,
पीड़ा थी ,जलन थी ,
आर्तनाद था !
गरल से भरा था कंठ उनका ,
पर मन ठहरा हुआ था ,
शांत था !
सृष्टि को बचाने की पहल में,
शिव का त्याग बोलो किससे भला अब छुपा था?
जाने जगरक्षक का नाम विनाशक क्यों पड़ा था?
देह विलीन हो
रही थी ज्वाला में ,
दहक थी,लपट थी ,
अपमान था !
क्षोभ से भरे हुए थे नयन उनके !
पर मन ठहरा हुआ था ,शांत था !
पति की अवमानना पर ,
जान दे देना भी उन्हें कम ही लगा था !
सती का मान फिर भी कहाँ किसने रखा था ?
लगन की परकाष्ठा
थी हृदय में ,प्यार था,मान था
सम्मान था !
तप से गर काया क्षीण थी जो देवी पार्वती की ,
जोगी रहकर शिव ने भी तो अपना व्रत किया था !
एक दूसरे में समाहित ,
प्यार में गुंथे हुए
साथ निभाने की कसम में
अनकहे बंधे हुए !
-अमृता श्री
